सूखा घाट …….. [कविता एवं स्वर] श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’


सूखा घाट
और तालाब
पत्ते पीपल के
सूख चुके हैं सारे
’बरमबाबा’ की डालें
हिलती हैं जब हवा से,
सुनायी देती है मुझे
रुनझुन ….
तुम्हारी नयी पायल की आवाज
अब भी ….
खड़कते हुये पत्तों में

कैथे का पेड़
अब हो गया है
बहुत बड़ा,
सींचा था जिसे अक्सर
कलश की बची बूंदों से
तुमने …..
हर जेठ की तपती दोपहर को

’शिव जी महाराज’ ..
बच्चों से कभी
होते नहीं नाराज
यही तो कहते थे
हर बार ….

सामने की पगडंडी
खो जाती है अब भी
इक्का दुक्का पलाश,
और ‘ललटेना’’ की झाड़ियों में
आधुनिकता के प्रतीक
‘लिप्टस’ के जंगलों में

देखता हूँ अदृश्य पटल पर
तुम्हारी …
पलाश के दोनों में
करौंदे के प्रसाद वाली
दोपहर की दावत को
बरमबाबा का …
लबालब भरा तालाब
चहचहाती चिडियाँ
हरा भरा जंगल
अंकुरित आम की गुठलियाँ
और उन्हें यहाँ वहां गाड़ते
एक साथ हमारे नन्हे हाथ
अपने नाम को
अक्षुण करने की चाह में

बड़े हो चुके हैं अब आम
फल आते हैं इन पर
हर साल…..
बँटवारे मारकाट
और वलवे के

ढूंढ़ रहा हूँ
वर्षों बाद आज फिर
अस्ताचल से उठती
गोधूलि के परिदृश्य में
अपने विलोपित खेत खलिहान
और उसमें से झांकता
स्नेहिल आँखों से लबालब
ग्रामदेवी सा दमकता
तुम्हारा चेहरा …
जो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह

* * *
कवि के स्वर में सुने

8 टिप्पणियां (+add yours?)

  1. संगीता पुरी
    मार्च 30, 2009 @ 08:37:00

    साहित्‍य शिल्‍पी में पढ चुकी हूं … बहुत ही बढिया रचना लिखी है आपने … बधाई।

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  2. शोभा
    मार्च 30, 2009 @ 10:40:00

    वाह बहुत सुन्दर लिखा है।

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  3. रंजना
    मार्च 30, 2009 @ 12:25:00

    क्या कहूँ…..एकदम निःशब्द हूँ….बस यही कह सकती हूँ कि पढ़ते समय पूरे शरीर में रोमांच सा भर आया…..ब्रहम स्थान,पीपल,ग्रामदेवी……सचमुच कहाँ गए सब………..????भावों को शब्दों में ऐसे बाँधा आपने कि वे पूर्णतः पाठक के ह्रदय को निमग्न करने में सफल रहे…..बहुत बहुत सुन्दर कविता…….लाजवाब…..आपका बहुत बहुत आभार,जो पढने का सुअवसर दिया….

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  4. अनिल कान्त :
    मार्च 30, 2009 @ 14:30:00

    रोमांचित कर देने वाली रचना …. मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति

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  5. डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
    अप्रैल 07, 2009 @ 07:45:00

    बहुत अच्छा लगा आपके विचार देखकर, धन्यवाद। सहयोग बनाये रखें। रायटोक्रेट कुमारेन्द्रशब्दकार को shabdkar@gmail.com पर रचनायें भेज सहयोग करें।

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  6. सुशील कुमार
    अप्रैल 10, 2009 @ 08:28:00

    ‘सूखा घाट’ आपकी उत्तम कविता है। इसमें प्रखर इन्द्रियबोध का झलक भी मिलता है जो आपकी विकसित लोक-चेतन-दृष्टि को पाठकों के समक्ष आगे रखता है,पर आपकी रचना पर दक्षिण्पंथ की छाया भी एक हद तक विद्यमान रहता है जिससे निस्तार पाना एक सफल रचनाकार के लिये जरूरी है।- अक्षर जब शब्द बनते हैं

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  7. श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’
    अप्रैल 10, 2009 @ 10:15:00

    सुशील कुमार जी टिप्पणी और सुझाव के लिये आपका कोटिश: आभार

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  8. vimal mishra
    जनवरी 05, 2010 @ 13:19:15

    lajabab sir!! don't have words to express!!

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