नचकैया …….. [कहानी ] – श्रीकान्त मिश्र ‘कान्त’


हां होली और दीपावली पर उनका महिलाओं जैसा श्रृंगार जो कभी औरतों के बीच खासी चर्चा का विषय हुआ करता था तिवारी की मृत्यु के बाद उन्हें उसके विशेष रखरखाव में कोई रूचि नहीं रह गयी थी. सेटेलाइट प्रसारण से टी वी पर चोरी छुपे रैंप के फैशन कार्यक्रम तक देखने वाली गांव की औरतों कॊ अब नचकैया की सौंदर्य विषयक जानकारी में कोई रूचि नहीं थी. उनका पत्नी और बच्चों से प्राय: झगड़ा होता. उधर वीडिओ और टी वी के आगमन के साथ ही ग्रामीण उत्साह के प्रत्येक अवसर पर आयोजित होने वाले नौटंकी नाटक रहस आदि मृतप्राय हो चले थे. सामाजिक संरचना की सारी उथल पुथल के बीच विलुप्त होती लोककलाओं का एक संवेदनशील कलाकार उपेक्षा का दंश झेलते हुये टूट गया था……….


“आओ छोटे दादा..! आओ….!”


बाग की अमराई से बाहर उसे अपने खेत की मेड़ से गुजरते हुये देखते ही वह चहक कर बोले. तब तक वह भी उनकी आवाज से सकपका कर उधर देखने लगा था. वापस मुड़ने का कोई चारा न था और फिर ’बड़े घर के शेर बच्चे किसी से डरते नहीं’ इस बात की पोल खुलने का डर…. अत: उसने आगे बढ़ना ही उचित समझा. वैसे उनका अर्धनारीश्वर स्वरूप उसके जैसे बच्चे के लिये अप्रत्याशित था. कानों में सोने की बडी बड़ी बालियां …. लम्बे काले केशों का बड़ा सा जूड़ा बांधे वह खेत पर काम कर रहे थे. बिल्कुल गांव की औरतों की तरह मिस्सी और काजल लगाये, नीले रंग का चारखाना तहमद पहने वह अजीब से लग रहे थे. अपने बाग से होकर खेतों की ओर जाते हुये उनके जैसे व्यक्ति से भेंट हो जायेगी ऐसा तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था. यद्यपि उनके इस प्रकार टोकने पर वह अंदर से बहुत डर गया था फिर भी ऊपर से निडरता का दिखावा करते हुये उसने अपना रास्ता नहीं बदला.

….. स्टूडियो में एक दूसरे के साथ बैठने से परहेज करने वाले समवेत स्वर में बोलने लगे. हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई सब धार्मिक नेता एक ही बात दोहराते समलैंगिकता अप्राकृतिक तथा अधार्मिक है. मीडिया जगत का प्रत्येक चैनल ज्वलंत बन चुके इस विषय को टी आर पी बढ़ाने का सर्वोत्तम अवसर मानकर कवर करने में जी जान से जुट गया. पक्ष विपक्ष में हो रहे बहस धरने प्रदर्शन के आलोक में एक प्रमुख चैनल की ओर से जब उसे इस विषय पर कवर करने को कहा गया तो अचानक ही उसे नचकैया का स्मरण हो आया. उसने सोचा कि नचकैया का इंटरव्यू इस विषय की गहराइयों पर एक नई रोशनी डालने के लिये सहायक हो सकता है…..


“पांव लागूं दादा….. ऐसे कहां चुपचाप निकले जा रहे हो पण्डित जी महाराज… आशीर्वाद तो देते जाऒ”

अब उसका साहस जबाब दे गया था.

“ खुश रहो ……..”

स्वभाववश आशीर्वाद देने की मुद्रा में हाथ उठाते हुये उसने कहने का प्रयास किया किन्तु आवाज मुंह से बाहर नहीं आयी. मात्र नौ वर्ष की वय में दादी से सुने जमींदारों के बहादुरीपूर्ण किस्सों के सहारे उसका साहस कब तक टिकता. उसने आज तक किसी भी पुरुष को इस तरह नारी वेश में नहीं देखा था. एक साहसपूर्ण दृष्टि उनकी ओर डालने का उसने प्रयास किया किन्तु उसका मन वहां से तेजी से भागने को हुआ. कच्ची पगडंडी पर जल्दी जल्दी पांव रखते हुये उसने शीघ्र निकलने का प्रयास ही किया.



“ खी खी ……. भाग रहे हो छोटे दादा”

उन्होंने खेत से निकाली हुयी घास मेंड़ पर रखते हुये जोर से कहा. किन्तु उसने मुड़्कर नहीं देखा. आम के बागों की कतार से दूर अपने खेतों तक पहुंचते हुये उसे स्मरण आया कि कई वर्ष पूर्व नौटंकी में उन्हें स्टेज पर पहली बार देखा था. तमाशबीनों भीड़ में अपने बालमित्र के साथ वह शामियाने से बाहर आकर खड़ा ही हुआ था कि एक महिला के वेश में कई अन्य रंगे पुते चेहरे वाले कलाकारों के साथ वह अचानक आ धमके.

“राजकुमार मिल गये”

वह जोर से बोले और उसे गोद में लेकर स्टेज पर वह इस तरह झपटे जैसे कोई चोरी का बच्चा लेकर भागा हो. तब तक हक्का बक्का घबराया हुआ वह बस रोने लगा था.

“ महाराज की जय हो .. ! धाय मां राजकुमार को आपके सन्मुख ले आयी हैं”

“ महामंत्री जी .. मेरा अंतिम समय अब सन्निकट है…. राजकुमार का राजतिलक किया जाये और उनके युवा होने तक शत्रुओं की दृष्टि से दूर रहने का प्रबंध किया जाये.”

“ जैसी आज्ञा महाराज”

“ मेरी मृत्यु के उपरांत साम्राज्य के प्रति वफादारी का वचन दें महामंत्री जी … ! और ……..”

कहते ही महाराज की गर्दन एक ओर को लटक गयी थी. सचमुच रोते हुये राजकुमार बच्चे को देखकर नाटक का वह दृश्य सजीव हो उठा था. लोग तालियां बजाये जा रहे थे. इस सब के बीच वह शीघ्रता से उसे स्टेज के पीछे अंधेरे में ले आये थे. उसे मिठाई देकर चुप कराते हुये उन्होंने कहा था

“आप राजकुमार हैं. राजकुमार रोते नहीं. अब घर जाओ……. यहां पर किसी को नहीं दिखना , शत्रु आपकी खोज में हैं. बड़े होकर आपको महाराज के सिंहासन पर बैठना है”

डर के मारे सीधा घर भाग आया था. घर पहुंचते ही उसने सबसे पहले अपनी दादी को सारी घटना बतायी थी. उन्होंने नचकैया लोगों को नीचा बताते हुये उनके सामने फिर कभी न पड़ने की सलाह दी थी.

अगले दिन दादी का पारा बहुत चढ़ा हुआ था. रात की घटना से वह बहुत नाराज थीं. नचकैया को काफी खरी खोटी सुनाते हुये उन्होंने पिता जी से कहा था.

“ एक नचकैया की इतनी हिम्मत…. जमाना बदल गया है नहीं तो ……” दादी के स्वर में धमकी थी.

“ रहने दीजिये वह कलाकार है .. मैं उसे समझा दूंगा”

“ समझाने से कुछ नहीं होगा. उसे अच्छी डांट पड़नी चाहिये ” दादी पिता जी की बात से संतुष्ट नहीं दिखीं. वह बड़ड़ाये जा रही थीं

“ …. पता नहीं यह तिवारी भी कैसा पण्डित निकला. एक नचकैया को लाकर गांव में बसा लिया. जब तक बीवी जिन्दा थी इसके नौटंकी वालों को घर पर नहीं फटकने दिया. अब जब देखॊ तब हमारे ही घर के पिछवाड़े बाज़ा (हारमोनियम) बजने लगता है. नाचने वाले उसके घर में हफ्तों टिके रहते हैं…..” वह बोले जा रही थीं

“ आप भी ….. “ पिता जी हंसते हुये चले गये. किन्तु बालबुद्धि वह कुछ भी नहीं समझ सका था. हां उस दिन से आज तक उन्हें कभी गांव में नहीं देखा था. उसे बाद में पता चला था कि वह एक मंजे हुये कलाकार थे और उस क्षेत्र के सबसे बड़े नचकैया. स्टेज पर कहानी के अनुरूप निरंतर प्रयोग करना उनका स्वभाव था. फिर भी उनका तमाशा देखने का विचार उसके मन में कभी नहीं आया.

यह संयोग ही था कि सदैव की भांति वह आज भी खेत पर नौकरों के लिये दादी का संदेश लेकर आया था और वह सामने पड़ गये थे. खेत पर उसकी भेंट रमुआ से हो गयी. रमुआ का पूरा नाम तो रामखिलावन था किन्तु सारे गांव में रमुआ हो..! रमुआ रे…!! की आवाज ही सुनाई देती थी. सब उसे इसी नाम से बुलाते थे. रमुआ की दुनियां उसके स्वयं के ’प्रतिपल विनिर्दिष्ट’ नियंत्रित जीवन से भिन्न बहुत निराली थी. रमुआ परम स्वतंत्र था. स्कूल तो बहुत पहले मास्टर जी के समझाने के उपरांत भी उसके बापू ने ही छुड़वा दिया था. पढ़ लिखकर कौन सा कलक्टर बनना था. सो सवेरे सवेरे बाप की डांट सुनता और घर से बाहर निकल जाता. सारा दिन गांव जंगल घूमता और जब कभी मन करता अपनी दादी के साथ बकरियां चराने निकल जाता. दिन भर झूले (ढाक, पलाश) के पत्तों से दोने पत्तल बनाता. बाद में पत्थर से चोट कर पाकड़ के तने से निकले दूध की बूंदे कुछ दोनों में लगाता. दोपहर को साथ ही चरती हुयी किसी भी गाय बकरी के थनों से उन्हीं दोनों में दूध निकाल लेता. कुछ समय किसी पेड़ की छांव में रख देता और दूध के दही जैसा बनते ही पेट पूजा कर लेता. बाद में पहले से दुही गाय बकरी के कम दूध देने पर गांव वालों से गाली खाकर भी रमुआ मस्त था. अलबत्ता यह भी सही था कि रमुआ से कोई लम्बॆ समय तक नाराज नहीं रह सकता था. वह सबके किसी न किसी काम आता था. उसका बाप अब भी खेतों में काम करता था और वह मटरगश्ती. गांव में सारी दुनियां जहान की खबरों का स्रोत रमुआ ही था. एक चलता फिरता अखबार.

“सुन रे रास्ते में अमराई के पास तिवारी जी के खेत पर वह औरतों जैसा वेश बनाये क्या कर रहा है”

“ कौन …. वह नचकैया…. ? अरे वह तो कई दिनों से अपने गांव में ही है.”

“ क्यों …… “

“ कोई नौटंकी तमाशा का काम इन दिनों ठीक से नहीं चल रहा है … और अब तो तिवारी जी ने अपना घरबार जमीन जायदाद भी उसके नाम कर दी है” रमुआ ने सयानों की तरह उसे समाचार दिया.

“ तो अब वह गांव में ही रहेंगे…. ?” उसने सशंकित होकर पूछा.

“ हां … क्यों …. तू क्यों पूछ रहा है….? अच्छा अब समझा वह बचपन की राजकुमार वाली घटना तुम्हें अब तक याद है. तुझे अब तक उनसे डर लगता है ..? हा.. हा….” वह जोर से हंसा.

“नहीं नहीं .. ऐसी कोई बात नहीं” वह रमुआ के सामने स्वयं को डरपोक नहीं प्रदर्शित करना चाहता था.

उस दिन की बात आयी गयी हो गयी थी. दादी का देहांत हुये कई वर्ष बीत चुके थे. घर के पिछवाड़े नौटंकी वाले तिवारी जी की संपत्ति का एकमात्र उत्तराधिकारी नचकैया ही था. पूरे जीजान से तिवारी जी की सेवा करना खेतों मे काम और कभी कभार क्षेत्र में नौटंकी. आसपास के गांवों मे तिवारी जी और नचकैया के प्रेम संबन्धों की चर्चा और थू थू कुछ दिनों तक ही चली. तिवारी जी का लोटापानी घॊषित रूप से तो बंद नहीं था परन्तु उनके घर पानी पीने वालों पर सबकी निगाह रहती. चोरी छिपे सभी उनके घर पानी पी लेते और प्रत्यक्षत: तिवारी की लुटिया बंद होने का दिखावा करते. स्वयं के कुलीन ब्राह्मण होने का दंभ भरने वाले लोग अक्सर नचकैया से खेत के लिए बीज और सिंचाई के लिए उधार मे पैसे मांग लेते. कभी कभार कोई नाचने वाली ’बाई’ नाच सीखने के लिए कुछ दिन तिवारी जी के घर रुक जाती. उन दिनों तिवारी के घर खूब महफ़िल लगती. प्राय: गांव के सभी लोग किसी न किसी बहाने से कलाकारों की परोगाम रिहलसल (प्रोग्राम रिहर्सल) देखने पहुंच जाते. उन दिनों गांव के बाग में पेड़ों के नीचे लगने वाले प्राइमरी स्कूल के बच्चों को बहुत प्यास लगती. स्कूल से एक दो लंबर (नंबर) के नाम पर निकले बच्चे सीधे नचकैया के घर पहुंच जाते. पानी पीने के नाम पर नाचने वाली का चेहरा देख आते और बाद में नमक मिर्च लगाकर बखान करते. लोटापानी बंद की बात अब पुरानी हो गयी थी.

अब तिवारी जी के काफी बाल सफेद हो चले थे. वंश आगे बढ़ाने की भावना से उन्होंने नचकैया को विवाह करने का आग्रह किया. छोटी जाति के नचकैया की बारात में शामिल होने की कामना रखने के बावजूद गांव से कोई नहीं गया था. सबको अपने अपने मुखौटे नुच जाने का डर था. नचकैया की पत्नी मां बनने वाली हैं यह खबर सारे गांव में महीनों चर्चा में रही. उनके बेटे के जन्म पर तिवारी जी ने बड़ी धूमधाम की. गांव के सभी लोगों के साथ साथ अपने परिचित बूढ़े जवान सारे कलाकारों को आमंत्रण भेजा था. नवजात के नामकरण संस्कार पर नौटंकी विधा के कार्यक्रमों को सप्ताह भर गांव में आयोजित करने की घोषणा भी कर डाली थी. पिता बनने से नचकैया भी बहुत खुश थे. बेटे के जन्म पर वह अपनी कला का सर्वोत्तम प्रदर्शन अंतिम बार करेंगे उनकी यह घोषणा जंगल में आग की तरह फैल गयी थी. क्षेत्र के आस पास सभी गांवों में लोग उनकी कला के कद्रदान थे. उन दिनों यह अफवाह भी जोरों पर थी कि अपने लम्बे बाल कटवा कर वह अब संपूर्ण पुरूष बन जायेंगे. बेटे के पिता के रूप में वह नारी वेश त्याग देंगे. वहीं पर कुछ लोगों ने तो नवजात शिशु के उनके अथवा तिवारी के होने पर भी सवाल उठा दिया था. जितने मुंह उतनी बातें…….. फिर भी उस समय के श्रेष्ठ कलाकार का मंच से अंतिम प्रदर्शन देखने से कोई भी चूकना नहीं चाहता था.

पिता जी के कहने पर इस बार वह भी नौटंकी देखने वालों की भीड़ में बैठा था. नगाड़े की थाप और हारमोनियम की धुन पर नौटंकी के परम्परागत संवाद….. सदैव नारी पात्र का अभिनय करने वाले नचकैया ने उस रात अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था. जीवंत अभिनय और भावपूर्ण संवाद ……. उसने अनुभव किया कि कला सिर्फ कला होती है. लोगों के मुंह से कही सुनी बातों से अलग हटकर …… नचकैया उसे असाधारण कलाकार एवं एक सामान्य व्यक्ति लगे थे. नौटकी के दृश्यों के बीच लोगों की फूहड़ टिप्पणी पर उसे हर बार बुरा लगता. उसे लगता कि लोग नचकैया और उनकी कला का अपमान कर रहे थे. उसने तय किया कि वह उनसे बात करेगा. परन्तु ऎसा न हो सका. अच्छी शिक्षा के लिये उसे गांव से दूर बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया था. उसके बाद नचकैया से मिलना और उसका बात करना कभी न हो सका.

अनेक वर्षॊं की लम्बी पढ़ाई तदुपरांत मीडिया और प्रसारण की उच्च शिक्षा के बाद कवरेज और प्रोग्राम की महानगरीय व्यस्तता के बीच वह नचकैया को भूल चुका था. इस बीच परिवार के साथ महानगर सेटल होने के बाद पैतृक गांव से सन्बंध भी लगभग समाप्त हो गया था. टी वी और चैनल की चकाचौंध में व्यस्त उसकी जिन्दगी के बीच एक दिन माननीय उच्च न्यालय द्वारा धारा 377 पर की गयी एक टिप्पणी ने सारे देश में भूचाल ला दिया. टिप्पणी को अपने पक्ष में मानने से उत्साहित होकर चोरी छिपे रहने वाले गे संगठन विभिन्न नगरों में सार्वजनिक रूप से बाहर निकल पड़े. समाज संस्कृति और राष्ट्रीय परिवेश सहित पारिवारिक ताने बाने को प्रभावित करने वाले इस विषय पर सब ओर चर्चा हो रही थी. वैचारिक आंदोलन की इस घटना ने धुर विरोधी विभिन्न धर्मगुरूओं को भी इसके विरोध में एक साथ ला दिया. प्राय: स्टूडियो में एक दूसरे के साथ बैठने से परहेज करने वाले समवेत स्वर में बोलने लगे. हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई सब धार्मिक नेता एक ही बात दोहराते समलैंगिकता अप्राकृतिक तथा अधार्मिक है. मीडिया जगत का प्रत्येक चैनल ज्वलंत बन चुके इस विषय को टी आर पी बढ़ाने का सर्वोत्तम अवसर मानकर कवर करने में जी जान से जुट गया. पक्ष विपक्ष में हो रहे बहस धरने प्रदर्शन के आलोक में एक प्रमुख चैनल की ओर से जब उसे इस विषय पर कवर करने को कहा गया तो अचानक ही उसे नचकैया का स्मरण हो आया. उसने सोचा कि नचकैया का इंटरव्यू इस विषय की गहराइयों पर एक नई रोशनी डालने के लिये सहायक हो सकता है. लोगों के विचार से तिवारी और नचकैया के संबन्ध इसी श्रेणी के थे. यदि नहीं तो क्या वह दो कलाकारों के बीच का सहज अनुराग था. तिवारी ने स्वयं उन्हें विवाह करने का आग्रह किया था और वह पिता भी बने थे. क्या समवर्ती समाज में अथवा उससे पूर्व इस प्रकार के संबन्ध उपस्थित रहे हैं. तिवारी और उनका सच क्या था ? ऎसे अनेकों पृश्न उसके मस्तिष्क में तीव्रता से आ रहे थे.

वर्षों पुरानी स्मृतियां ताजा करते हुये कलम कैमरा और माइक संभाले वह आज अपने गांव की ओर ड्राइव कर रहा था. पलाश के जंगल का कहीं कोई नामो निशान नहीं सभी जगह बस खेत ही नजर आ रहे थे. आम का कोई पुराना बाग भी उसे दूर तक नहीं दिखाई दिया. उसके बचपन के खेत और आम की कतारों का गांव बिल्कुल बदला हुआ था. गांव के बाहर इकलौते बचे पुराने पीपल को पहचान कर उसने कार रोक दी. कुछ पल वीडिओ प्रस्तुति एवं पृश्नों की रूप रेखा बनाते हुये उसका ध्यान कार के पास आते हुये युवक की आवाज से भंग हुआ.

‘ अरे ददुआ तुम कब आये …! कित्ते साल बादि . गाड़ी हिंया काहे रोकि दई’

उसे कार में पहचानते हुये चुपचाप बैठे देखकर उसने टोका.

‘ कुछ नहीं ऎसे ही. आज बहुत वर्षों बाद वापस लौटा हूं न… ’बरम्बावा का थान’ देख रहा था. गांव में सब कैसे हैं… !’ युवक को संतुष्ट करने के लिये उसने कहा

‘सब ठीक हंई ददुआ’

‘और वह रमुआ….? आजकल क्या कर रहा है’

‘वोइ तौ परधान हंइ. अबकी परधानी सीट निजरब(रिजर्व) हुइ गयी रहइ … सबने उसैह क लड़ाइ दऒ’

‘हूम्म …. और वो नचकैया दद्दा…. वो कहां और कैसे हैं..’

‘वोइ तउ तिवारी जी के मरन के बादि गांव छोड़ि के चले गये …..’

‘क्या हुआ …. उनके पास तो तिवारी जी की बहुत सारी जमीन थी .. वह सब … ‘

‘का बतावैं ददुआ पूरी कथा हइ. उनइं त जमीन जायदाद सब बेंचन क परि गयी. आधे से जादा त बीमारी म लगि गई…… सुनी हइ कि अब तउ कहुं नदी के किनारे झोंपड़ी बनाइ के रहत हंइ’

“क्या तुम मुझे विस्तार से बताओगे कि पिछले दिनों उनके साथ क्या हुआ था ”

उसे व्यग्रता हो चली थी. उसकी रूचि पैतृक गांव में अपने पुराने घरबार से कहीं अधिक उनमें थी. गांव में मिली जानकारी के अनुसार वह अपनी पत्नी के साथ गांव में ही अलग घर बना कर रहने लगे थे. तिवारी जी के मकान में उनकी महफिल कम हो चली थीं. गांव की सभी औरतों से अधिक लम्बे काले और घने रहने वाले उनके बाल कटवाने से उन्होंने मना कर दिया था.

“यह केश तिवारी जी के रखवाये हैं. मेरे मरने के बाद ही जायेंगे” उन्होंने कहा था. बेटे और पत्नी से इसको लेकर उनका बहुत झगड़ा हुआ था परन्तु वह नहीं माने थे.

हां होली और दीपावली पर उनका महिलाओं जैसा श्रृंगार जो कभी औरतों के बीच खासी चर्चा का विषय हुआ करता था तिवारी की मृत्यु के बाद उन्हें उसके विशेष रखरखाव में कोई रूचि नहीं रह गयी थी. सेटेलाइट प्रसारण से टी वी पर चोरी छुपे रैंप के फैशन कार्यक्रम तक देखने वाली गांव की औरतों कॊ अब नचकैया की सौंदर्य विषयक जानकारी में कोई रूचि नहीं थी. उनका पत्नी और बच्चों से प्राय: झगड़ा होता. उधर वीडिओ और टी वी के आगमन के साथ ही ग्रामीण उत्साह के प्रत्येक अवसर पर आयोजित होने वाले नौटंकी नाटक रहस आदि मृतप्राय हो चले थे. सामाजिक संरचना की सारी उथल पुथल के बीच विलुप्त होती लोककलाओं का एक संवेदनशील कलाकार उपेक्षा का दंश झेलते हुये टूट गया था.

युवक से मिली जानकारी नोट करते हुये उसके मस्तिष्क में फिर पृश्न कौंधे. क्या तिवारी जी और नचकैया के संबंध आज की गे विचारधारा का पूर्ववर्ती काल था. आज के दौर में टीवी पर होने वाले भोंडे प्रदर्शन के बिना उनका वर्षों का संबंध और पारस्परिक समर्पण…. क्या था वह ? उसने सोचा था कि वह सीधे उनके घर जायेगा. नौटकी, रास, धमाल एवं विलुप्त होती अन्य पुरानी कलाओं के विषयों पर गहन चर्चा के अतिरिक्त समाज और समलैंगिकों के ऊपर चर्चा करने….. मंच परित्याग के उपरांत उनके अनुभवों को सामने लाने के लिये…… उनको क्या बीमारी हुयी और कैसे…? कोई सहायता करने. क्या यह संभव होगा…? क्या वह मिलेंगे. अपने विशेष कार्यक्रम के लिये अब उसे नचकैया का इण्टरव्यू मात्र प्रासंगिक ही नहीं अपितु अपरिहार्य लग रहा था. क्या था उनका सच…. मीडिया के सामने वह उनसे ही पूछेगा. अपनी राय एवं सही गलत का निर्णय दर्शकों पर थोपे बिना. इसके साथ ही उसकी गाड़ी एक झटके के साथ गांव छोड़ती हुयी युवक के बताये रास्ते पर नदी की ओर दौड़ पड़ी.

3 टिप्पणियां (+add yours?)

  1. Udan Tashtari
    जनवरी 11, 2010 @ 02:48:41

    सेव कर लिया..सुबह पढ़ते हैं..

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  2. गीता पंडित (शमा)
    दिसम्बर 01, 2010 @ 11:52:17

    उसके मस्तिष्क में फिर पृश्न कौंधे. क्या तिवारी जी और नचकैया के संबंध आज की गे विचारधारा का पूर्ववर्ती काल था. आज के दौर में टीवी पर होने वाले भोंडे प्रदर्शन के बिना उनका वर्षों का संबंध और पारस्परिक समर्पण…. क्या था वह ?एक ज्वलंत विषय पर आपकी कहानी कई प्रश्न भी खड़े कर रही है…और कई जगह समाधान्भी प्रस्तुत करती है….कहानी का सम्पूर्ण ताना बाना मन को आकर्षित करता है और अंत तक रोचकता बनी रहती है उत्सुकता भी..व्यक्ति एक इकाई है और उसे अपनी तरह से जीवन यापन की स्वतंत्रता नहीं मिलनी चाहिए क्या…??समाज का दांचा चरमरा जाएगा क्या…? वो समाज जिसकी किसे परवाह है आज के व्यक्तिवादी समय में…??.आभार बधाई श्रीकांत जी…एक सार्थक कहानी के लियें…

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  3. श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’
    दिसम्बर 01, 2010 @ 17:28:44

    गीता जी …. !प्रथमत: आपका कहानी को सार्थक सोच के साथ पढ़्ने के लिये हार्दिक आभार.अब आते हैं आपकी प्रतिक्रिया पर…. आपने लिखा है कि नचकैया कहानी जहां पर कई पृश्न खड़े करती है वहीं कई जगह समाधान भी प्रस्तुत करती है.सच है कि यह विषय जब आये दिन टी वी पर छाया हुआ था मेरे मस्तिष्क में बहुत उथल पुथल विभिन्न कारणों से हो रही थी. एक ओर माननीय न्यालय की विचारधारा जहां पर वैयक्तिक स्वतंत्रता के कारण अपनी पूर्व अवधारणा से हट रही थी वहीं पर विशिष्ट समूह इसे अपनी जीत तथा दूसरे समाज में विद्रूपता फैलने की आशंका से ….. आमने सामने खड़े हुये थे. इस सब के बीच एक कहानीकार के नाते मेरी अपनी व्यक्तिगत टिप्पणी का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता मात्र इसके कि सच को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जाय जो संभवत: समज के साथ साथ चलता रहा है. साथ ही स्वयं को निस्पृह रखते हुये कथ्य को आगे बढ़ाकर यह पृश्न समाज पर ही छोड़ दिया जाये.शायद मैं इस विषय को सही ट्रीटमेंट दे पाया अथवा नहीं यह आज नहीं कल का समाज बतायेगापुनश्च आभार

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