धरती के फूल
उग आए हैं इस बार….
राजनीति की आँधी,
और आतंक की बेमौसम
‘मुंबई बरसात‘ से
होती हैं जड़ें बहुत गहरी
सुना है पाताल तक …
धरती के फूल की
कंक्रीट के जंगल में
पांचसितारा संस्कृति में
परोसे जाने वाले व्यंजन ने
फैला दी है अपनी
खेत खलिहान …
विलोपित जंगलों से लाई
खालिश देशज उर्जा
..और माटी की गंध सड़कों पर
धरती के फूल ……
यानी कुकुरमुत्ते की जाति…
उगते हैं उसी जगह
जहाँ करते हैं बहुधा
‘कुत्ते‘ टांग उठाने की राजनीति
गाँव की विलुप्त बिजली के खम्भे पर
प्रधान जी के ‘स्कूलनुमा-बारातघर’ में
अथवा भीड़तंत्री गाड़ी के
‘अन्तुलाते‘ पहिये पर
वोटबैंक की तुच्छ बीमारी से लाचार.. ..
सत्तालोलुपता से दंशित राष्ट्र
पी सकेगा क्या …इसबार
राष्ट्रीय स्वाभिमान का
उर्जावान पंचसितारा सूप
मिट्टी से पैदा धरती के फूल का
आशीष कुमार 'अंशु'
दिसम्बर 29, 2008 @ 12:51:00
सुंदर रचना …
अवनीश एस तिवारी
जनवरी 08, 2009 @ 14:05:00
रचना तो अच्छी है |लेकिन हमारा जनतंत्र और नेता जन आदि हो चुकें हैं | नही समझ रहे है |जन जागरण हो और कुछ सफल कदम उठे इस आशा में …अवनीश तिवारी