’कान्त’ पत्थर वोट का संसद से चलाया जायेगा …. [गजल] – श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’


तुम हमारे जख्म फिर से मत कुरेदो

वक्त का मरहम हटाया जायेगा

लहू से लोहित हुयी सरयू अभी मैली पड़ी
आज क्या फिर से वही लोहू बहाया जायेगा

तारीख़ के पन्नों से निकली धुंध फिर सबओर है
राम को घर से हटा बाब़र बिठाया जायेगा

उनको अब तो छोड़ दो दो जून रोटी के लिये
टूटी ठेलों को कहीं फिर से जलाया जायेगा

पड़ोसी वाशिद की आंखें आज फिर ये पूंछतीं
भूखे बच्चों को तेरे घर पे सुलाया जायेगा

भरोसा अब कांच की उन बन्द खिड़की के सहन
’कान्त’ पत्थर वोट का संसद से चलाया जायेगा

तुम हमारे जख्म फिर से मत कुरेदो

वक्त का मरहम हटाया जायेगा

मां …. [कविता] – भोजराज सिंह

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नवांकुर की प्रथम कड़ी के रूप में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं भोजराज सिंह की रचना मां…

श्री भोजराज सैफ़ई निवासी हैं तथा कृषि विषय में स्नात्कोत्तर शिक्षा के उपरांत आगरा में प्रशिक्षु शिक्षक हैं. ]

कब्र के आगोश में जब थक कर सो जाती है मां

तब कहीं जाकर थोड़ा सुकून पाती है मां
फिक्र में बच्चों की कुछ ऐसी घुल जाती है मां
नौजवां होते हुये भी बूढ़ी नज़र आती है मां

रूह के रिश्तों की गहराइयां तो देखिये
चोट जो लगे हमको तो दर्द से चिल्लाती है मां
कब जरूरत हो मेरे बच्चे को यह सोच कर
जागती रहती हैं आंखें और सो जाती है मां

घर से जब परदेश जाता है कोई नूरे नजर
हाथ में गीता लिये दर पे आती है मां
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम परदेश में
आंसुओं को पोंछने ख्वाबों में आती है मां

चाहे हम खुशियों में मां को भूल जायें
जब मुसीबत में होते हैं तो याद आती है मां
लौट्कर जब सफर से वापस आते हैं हम
गोद में सर को लेकर प्यार से सहलाती है मां

हो नहीं सकता कभी अहसान उसका अदा
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है मां
मरते दम तक अगर बच्चा आये ना परदेश से
अपनी दोनों पुतलियां चौखट पर रख जाती है मां

प्यार कहते हैं किसे और ममता क्या चीज है
ये तो उनसे पूछिये जिनकी गुजर जाती है मां

जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक ..[कविता] श्रीकान्त मिश्र ‘कान्त’,

जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

अरे मैं तो ‘तत्व’ हूँ
क्या ‘व्यवस्था’ से मुझे लेना है
‘पंच तत्वों’ की निरी भंगुर
महा इस सृष्टि से,
आद्यान्त अभिनव ब्रह्म से
मैं परे हूँ …..
बंधे हो तुम इन्द्रियों की पाश में,
यों ही पा सकोगे न कभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

अरे मैं तो स्वयं
तुझ में गूंज कर भी
नहीं तुझ में लिप्त हूँ,
और तू तो स्वयं
मुझसे दूर होकर,
मगन है निस्सार में
‘बाह्य’ को कर बन्द,
‘अंतर’ खोल.. ढूंढ़ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी