तब अन्ना अब रामदेव …. [राजनीतिक विश्लेषण] – शिवेन्द्र कुमार मिश्र

4 जून 2011 से प्रारम्भ हुए आन्दोलन पर आपत्ति में फिल्म कलाकार, भोंपू राजनेता और पत्रकार भी थे… उनका कहना था कि हमारा सनातन धर्म सन्यासी से राजनीति करने की अपेक्षा नही करता।

…… इनमें से किसी ने यह नहीं बताया कि क्या सनातन धर्म, चोगें, मक्कारों, जनता का विश्वास हार चुके धूर्तो को राजनीति करने की इजाजत देता है। …. जब छवि दूषण से भी काम नही चला तो आन्दोलन को कुचलने के लिए बाबा को ही आधी रात में उठा लिया।

अब बाबा अनशन पर है। सरकार उच्चतम न्यायालय के कटघरे में और काग्रेस पार्टी पब्लिक के जूते पर।

राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों की प्र्रतिक्रियाएं बेहद खामोशी भरी है। दक्षिण के राजनेता, कम्युनिस्ट और ममता बनर्जी जैसे लोग चुप है तो माया और मुलायम की प्रतिक्रिया बेहद नपी तुली। भगवा ब्रिगेड गुस्से में है तो बाबा के अनुयायी और देश का आमजन स्तब्ध।
प्रश्न कई हैं। बाबा के राजनीति पर प्रश्नचिन्ह है तो मौलाना मदनी या अन्य धर्मगुरूओं की राजनीति या प्रश्नचिन्ह क्यों नही लगता।

रामलीला मैदान,नई दिल्ली। इतिहास के पन्नो पर दर्ज हुई तारीख 4/5.06.2011 रात्रि 1.30 AM बजे लगभग। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट एवं पंतजलि योगपीठ के स्रष्टा, योग उद्धारक महान योगगुरू को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। अपराध देश की लाखों करोड़ सम्पति विदेशी बैंको में जमा करने वाले भ्रष्टाचारियों को मौत की सजा की माँग, अवैध काले धन को राष्ट्रीय सम्पति घोषित करने की माँग, शिक्षा व्यवस्था भारतीय भाषाओं में देने की माँग इत्यादि।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब-जब निर्लिप्त, अनासक्त सन्यासियों, त्यागी वीतरागी, महापुरूषों ने मदान्ध सत्ताओं को राष्ट्रहित, मानवहित, समझानें का प्रयास किया है, तब-तब सत्ताओं ने, सत्ताशीर्ष पर बैठे मदान्धों ने उन्हें ऐसे ही दुत्कारा है, प्रताडित किया है। अपमानित किया है।

आप ईसा से लगभग 325 वर्ष पूर्व का महापदम नन्द का पाटलिपुत्र का वह राजदरबार याद करिये जब वीतरागी विचारक आचार्य चाणक्य विदेशी आक्रान्ताओं से राष्ट्रहित में राजा को सावधान करने जाते है और अपमानित होकर नन्दों के समूल विनाश की भीष्म प्रतिज्ञा करते है। ऐसी ही मदान्ध सत्ता सहस्त्रबाहु कार्तवीर्य अर्जुन की त्रेतायुग की याद करिए। जब तपस्यारत सन्यासी जमदग्नि के आश्रम को नष्ट भ्रष्ट कर हत्याएं की जाती है। और वीतरागी ‘राम’ परशुराम बन जाते है। उसी युग के वह दृष्य भी याद करिए जब अपनी तरह से अपनी जीवन पध्दति जीने वाले आर्यो को रावण की राक्षसी सत्ता जीने नही देती। दमन हत्याओं और रक्तपात से आर्यो की जीवन पध्दति ही संकट में पड जाती है। और इस सत्ता के विरूध्द संघर्ष का बिगुल बजाते हैं दो वीतरागी सन्यासी महान गाधितनय विश्वामित्र जो राम और लक्ष्मण को लेकर देश की आन्तरिक शक्तियों को संगठित करके एक सूत्र में राम के नेतृत्व में खडा करते हैं और दूसरे महान अगस्त जो दुश्मन की सीमा पर बैठकर राम के लिए शक्ति का संगठन करते है। इस देश में यह परम्परा कभी टूटी ही नहीं। गुरूगोविन्द सिंह, वीर वन्दा वैरागी, सन्यासी क्रान्ति, स्वामी दयानन्द एवं विवेकानन्द का जागरण, स्वामी श्रध्दानन्द का बलिदान, सावरकर बंधु महात्मा गाँधी से लेकर विनोवा और जयप्रकाश नारायण तक। और अब पूज्य अन्ना हजारे एवं संत श्री योगगुरू बाबा रामदेव।

4 जून 2011 से प्रारम्भ हुए आन्दोलन में लोगों ने बाबा के आन्दोलन करने पर आपत्ति जताई। इनमें फिल्म कलाकार, भोंपू राजनेता और ऐसे पत्रकार भी थे जो स्वयं को हिन्दू दर्शन का मर्मज्ञ मानते है। उनका कहना था कि हमारा सनातन धर्म सन्यासी से राजनीति करने की अपेक्षा नही करता। कुछ ने कहा…. वह व्यवसायी है। तो कुछ ने कहा बाबा संप्रदायिक ताकतों के साथ है। इत्यादि। इनमें से किसी ने यह नहीं बताया कि क्या सनातन धर्म, चोगें, मक्कारों, जनता का विश्वास हार चुके धूर्तो को राजनीति करने की इजाजत देता है। किसी ने यह भी नही बताया कि बाबा कौन सा मिलावट का व्यापार कर रहा है। अस्तु । जब छवि दूषण से भी काम नही चला तो आन्दोलन को कुचलने के लिए बाबा को ही आधी रात में उठा लिया।

अब बाबा अनशन पर है। सरकार उच्चतम न्यायालय के कटघरे में और काग्रेस पार्टी पब्लिक के जूते पर। राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों की प्र्रतिक्रियाएं बेहद खामोशी भरी है। दक्षिण के राजनेता, कम्युनिस्ट और ममता बनर्जी जैसे लोग चुप है तो माया और मुलायम की प्रतिक्रिया बेहद नपी तुली। भगवा ब्रिगेड गुस्से में है तो बाबा के अनुयायी और देश का आमजन स्तब्ध।
प्रश्न कई हैं। बाबा के राजनीति पर प्रश्नचिन्ह है तो मौलाना मदनी या अन्य धर्मगुरूओं की राजनीति या प्रश्नचिन्ह क्यों नही लगता। बाबा इसलिए तो निशाने पर नही कि वह हिन्दु पुन: जागरण के प्रतीक न बन जाएं। आपको याद होगा राहत फतेह अली खान पाकिस्तानी गायक का फेरा में गिरफतारी का मामला। सारे नियम कानून ताक पर रखकर उसे छोड़ दिया गया किन्तु उसका भारत स्थित हिन्दू सचिव शायद आज तक जेल में है। सैकडों आतंकवादियों को फांसी देने की फाईल प्रधानमंत्री कार्यालय से राष्ट्रपति कार्यालय तक नही सरकती चाहे लोग आतंकियो को फांसी देने के लिए आत्मदाह ही क्यो न करें किन्तु बाबा का तम्बू आम नागरिक अधिकारों को कुचलते हुए रात्रि 1:30 बजे उखाड़ने का निर्णय प्रधानमंत्री कार्यालय और सोनिया जी ले लेती हैं और पुलिस के वीर सफलता भी हासिल कर लेते है।

एक और मजाक देखें। सोनिया जी के नेतृत्व में सरकार एवं काग्रेस के नुमाइन्दों की उच्चस्तरीय बैठक होती है और उसके बाद के काग्रेसी बयानों से स्पष्ट है छवि मलीनीकरण की राजनीति उच्च पदस्थ काग्रेसियों एवं सरकार की शह पर हो रही है। 1993 के बाद से जो सरकार दाउद को नही पकड़ सकी वह आधी रात में शान्ति प्रिय नागरिकों को पुलिसिया अन्दाज से भगा देती है। जन्तर-मन्तर जहाँ 8 तारीख को अन्ना हजारे को अनशन करना था वहॉ दफा 144 लगा देती है। और मोदी का मर्सिया पढ़ने वाले नागरिक अधिकारों की दुहाई देने वाले, राजनेता, बुध्दिजीवी राजनीतिक दल, मीडिया चैनल कुम्भकर्णी नींद में सोते रहते है। इतना ही नहीं कुछ चैनल तो सरकार की छवि-दूषक संस्कृति के ध्वजा वाहक बन जाते है। न ऐसा पहली बार हुआ है और न आखिरी बार।

ऐसा क्यो होता है? …

वस्तुत यह देश 712 ए0डी0 के बाद से ही निरन्तर दबाया गया है … कुचला गया है। फिर भी भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं जरा सा खाद पानी मिलता है तो अमर बेल की तरह बढ़ने लगती हैं। कांग्रेस को बस यही दर्द है। भारतीय राष्ट्रवाद हिन्दू राष्ट्रवाद तक जाता है जिससे गैर हिन्दू राष्ट्रवादी संस्थाओं को अपनी सत्ता, सुख-चैन सब … छिनता दिखाई देता है। ऐसा कोई भी आंदोलन जिससे भारत मजबूत होगा चाहे वह अन्ना करे या बाबा रामदेव। अगर वह व्यवस्था परिवर्तन से जुड़ा है तो सरकारें उसे कुचलेंगी ही क्योंकि वह भारतीय/हिन्दू राष्ट्रवाद का जनक बन सकता है। अन्यथा यह मजाक नही तो क्या है। कि पिछले दो दशक से बाबा रामदेव, उनके सहयोगी और उनकी संस्थाए काम कर रही है किन्तु सरकार को आज उनमें कोई नेपाली गुण्डा नजर आता है तो संस्थाए करचोर। विडम्बना देखिये …. आज बाबा को व्यापारी कहकर वह सरकार निन्दा कर रही है जिसने विशुध्द भारतीय व्यापारी संत सिंह चटवाल (अमेरिका-प्रवासी) को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया है। क्या सरकार बता सकती है कि श्री चटवाल का देश के विकास में कितना अमूल्य योगदान है?

अब आगे क्या?

बाबा अनशन पर हैं और अन्ना ने लोकपाल बैठकों का बहिष्कार कर दिया है। जनता स्तब्ध है। भगवा ब्रिगेड जो स्वयं को भारतीय राष्ट्रवाद का स्वयंभू लम्बरदार मानती है मौके को भुनाने की कोशिश में हैं/ऐसे में आगे क्या? भारतीय राष्ट्र के लिए आगे के दिन उथल-पुथल भरे हैं और सरकार के लिए मुश्किल पैदा करने वाले। ऎसे में यदि सर्वोच्च न्यायालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है तो शायद बाबा और हजारे को भी अनशन नहीं अपितु जनान्दोलन करना पडेगा। अनशन भी जनान्दोलन का ही एक तरीका है किन्तु यहाँ कारागर होगा कहना मुश्किल है। संभव है कि उच्चतम् न्यायालय के निर्देश और निगरानी में बाबा का डेरा फिर दिल्ली में ही जम जाए।


शिवेन्द्र कुमार मिश्र
आशुतोष सिटी, बरेली उ. प्र.।