नारी नदी का प्रवाह …… [कविता एवं स्वर] – श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’

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रचनाकार के स्वर में
शीर्ष तुंग से क्षरित
दुग्ध धार सी धवल
सर्पिणी सी इठल
मस्त मेघ सी मचल
यौवन प्रवेग से
शिव जटाजूट घेर
स्नेहसिक्त शैलखण्ड
उर कठोर दम्भ तोड़
सारे तटबन्ध तोड़
अडिग यतीचित्त को
करती हो निर्मल
बहती हो कलकल

पवन सा उन्मुक्त मन
भावयान पर सवार
नेह्दृष्टि आकुल
प्रणयवेग का प्रहार
बहचला संगसंग …
स्थिर चलायमान
लुढ़कता है गोलगोल
घिस जाता हर कोण
चटकता है चूर चूर
जीवन रसधार में

आतप मरुभूमि हृदय
अवनि के प्रस्तार में
सिंचित तरू कानन के
कोमल नवांकुरों से
उपजती है स्रष्टि नवल
क्षैतिज आलोक में
नदी नारी का प्रवाह
गहन गम्भीर हो
शांत मन धीर हो
बहती है सागर को
सभ्यता संस्कृति के
अद्भुत हरितालोक में

कालचक्र पर सवार
उड़ चलने मेघ संग
लेने फिर जीवन नया
समाधिस्थ हिमांगन में
पुरूष अभिमान का
अतुल आकार तोड़्
उर बना मोहसिक्त
रेत के कणों में छोड़
धूल धरणि धूसरित
विरहाकुल हो ढूंढ़ता
आंधी तूफान में
मेघ मेघ खोजता
नदी अस्तित्व को