टेसू के फूल



टेसू के फूल


खिल आये है फ़िर


बबूल के जंगल मे


स्नेह की बरसात न सही….


मुक्‍त …..


सर्द रिश्तों की जकड़न से


बेखबर


बौराये आम, पीले पत्‍तों बीच


वासन्ती बयार से


मुसकराने लगे हैं


खिलखिलाने लगे हैं


स्नेह सुगंध के बिना ही सही ……



आतंक की गर्मी,


अभी आगे भी आयेगी


आयु की ….


छोटी सी पगड्ण्डी पर


तपायेगी ,,,


चलते चलते


समय के नंगे ..जलते


आधारहीन पांवों को


झुलसायेगी राजनीति की लू से


महत्वाकांक्षाओं की चिलचिलाती धूप में


आम आदमी की तरह



और तब ……


तुम्हारे स्नेह के अभाव में


उजड़े मंदिर की सीढ़ियों पर


पीपल के सूखे पत्‍तों की खड़ाखड़ाहट


मन के पतझड़ को


पलाश की यही छांव


हरियाली का अहसास दिलायेगी



चला जाऊंगा


शिवलिंग के घट की


वाष्पित बूंदों के सदृश


उम्मीद की हर झिलमिलाहट को


आंखों में लेकर


वियोग के आतंक और..


अन्याय की तपिश से बचाकर


जीवन की डगर पर


और फिर खिल जायेंगे


टेसू के फूल इसी तरह


वासन्ती बयार से


किसी अनाम पगड्ण्डी पर

पुन: गंध विहीन ही सही,


15 टिप्पणियां (+add yours?)

  1. ajit gupta
    अप्रैल 10, 2010 @ 07:14:28

    पलाश जब खिलता है तब लगता है कि जंगल में दावानल आ गया हो, तो पलाश और उसकी छांव की तो कल्‍पना ही नहीं है। क्‍योंकि जब पलाश खिलता है तब वह पत्रविहीन हो जाता है और जब पत्ते ही नहीं तो फिर छांव कैसी?

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  2. संजय भास्कर
    अप्रैल 10, 2010 @ 07:29:01

    बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. ढेर सारी शुभकामनायें.संजय कुमार हरियाणा http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  3. दिलीप
    अप्रैल 10, 2010 @ 07:41:05

    bahut badhiya…maan gaye ustaad…http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  4. अजय कुमार झा
    अप्रैल 10, 2010 @ 07:56:38

    सुंदर और मन को सुख देने वाली रचना । और रही सही कसर आपके ब्लोग की साज सज्जा ने पूरी कर दी जिसने आंखों को भी सुकून पहुंचाया । आभार अजय कुमार झा

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  5. Sadhana Vaid
    अप्रैल 10, 2010 @ 08:06:09

    बहुत भावपूर्ण रचना ! तपिश और अग्नि के प्रतिमानों में छाँव, हरियाली और स्नेह सुगंध की कल्पना और अपेक्षा ने इसे नई बुलंदियों तक पहुँचा दिया है ! बहुत खूब ! http://sudhinama.blogspot.comhttp://sadhanavaid.blogspot.com

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  6. फ़िरदौस ख़ान
    अप्रैल 10, 2010 @ 08:58:11

    टेसू के फूलखिल आये है फ़िर बबूल के जंगल मे स्नेह की बरसात न सही….मुक्‍त …..सर्द रिश्तों की जकड़न से बेखबर …बौराये आम, पीले पत्‍तों बीच वासन्ती बयार सेमुसकराने लगे हैंखिलखिलाने लगे हैं स्नेह सुगंध के बिना ही सही ……बहुत सुन्दर…

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  7. Suman
    अप्रैल 10, 2010 @ 09:03:47

    nice

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  8. Ravish Tiwari (रविश तिवारी )
    अप्रैल 10, 2010 @ 10:12:15

    "उजड़े मंदिर की सीढ़ियों पर पीपल के सूखे पत्‍तों की खड़ाखड़ाहट "क्या खूब कहा श्रीकांत जी… alfaazspecial.blogspot.com

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  9. KAVITA RAWAT
    अप्रैल 10, 2010 @ 11:15:44

    आतंक की गर्मी,अभी आगे भी आयेगीआयु की ….छोटी सी पगड्ण्डी पर तपायेगी ,,, चलते चलतेसमय के नंगे ..जलतेआधारहीन पांवों कोझुलसायेगी राजनीति की लू सेमहत्वाकांक्षाओं की चिलचिलाती धूप मेंआम आदमी की तरहSundar bhimon ke madhaym se aam aadmi kee peedaon ko udhghatit kar aagah kiya hai… sach mein raajniti ki loo mein na jane kitne jhulas kar rah jaate hai… kaun hai ginti karne waala..Saarthak aur yatharthparak post ke liya bahut shubhkamnayne

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  10. रंजना [रंजू भाटिया]
    अप्रैल 10, 2010 @ 11:51:51

    टेसू के फूल …बहुत सुन्दर लगते हैं जब खिलते हैं पर यह पंक्तियाँ बहुत बढ़िया लगी तुम्हारे स्नेह के अभाव में…उजड़े मंदिर की सीढ़ियों परपीपल के सूखे पत्‍तों की खड़ाखड़ाहटमन के पतझड़ को पलाश की यही छांवहरियाली का अहसास दिलायेगीबहुत सुन्दर बहुत दिनी बाद आपका लिखा पढ़ा अच्छा लगा …शुक्रिया

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  11. वन्दना
    अप्रैल 10, 2010 @ 12:24:07

    टेसू के फूलखिल आये है फ़िरबबूल के जंगल मे वाह्………॥क्या कल्पना है…………॥अति सुन्दर्।

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  12. Anonymous
    अप्रैल 10, 2010 @ 13:13:20

    इस कविता के माद्य्म से प्रकॄति के परिवेश का गहन द्र्श्य दिख्ता हे……….आदभूत कल्पना श्वेता

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  13. रावेंद्रकुमार रवि
    अप्रैल 10, 2010 @ 14:50:48

    बहुत बढ़िया कविता! यहाँ पहुँचकर बहुत अच्छा लगा!

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  14. श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’
    अप्रैल 11, 2010 @ 09:52:08

    आदरणीया अजीत गुप्ता दी ! प्रणाममेरी रचना पर आपकी टिप्पणी मेरे लिये स्नेहाशीष. अभिभूत हूं. रचनाकार का बाल्यपन सेमर एवं टेसू के फूलों के बीच पलाशवन के आसपास ही गुजरा है.यह सत्य है कि पलाश जब खिलता है तब लगता है कि जंगल में दावानल आ गया हो. पत्रविहीन पलाशवन में जब तपती दोपहर को दूर दूर तक छांव नहीं होती तब उसी दावानल में जैसे टेसू के फूलों के बीच पलाश के पौधे भी कंकाल जैसे प्रतीत होते हैं. फिर कैसी छांव … लिखते समय मैं यह सब संज्ञान में है. परन्तु दी ! यह भी तो सत्य है कि प्रत्येक विपरीत स्थिति के समने भी जीवन जीने की ….. हार ना मानने की हमारी जिद, उन कंकाल जैसे पत्रविहीन पलाश के तने से मात्र टिककर ही जीवनछाया का अनुभव कराने लगती है.और हम चल पड़ते हैं पथ पर ….मानव के इसी स्वरूप एवं स्वभाव को इंगित करना मेरा उद्देश्य है. ….. उस कल्पनातीत छांव के माध्यम से कुछ संदेश कारक को भी. स्नेह बिना जीवन जीने की विवशता फिर भी नैराश्य से हारकर पलायन के स्थान पर आशाबीज का अंकुरण ….. आशा है कि धॄष्टता के लिये अनुज को क्षमा करेंगी. सदैव स्नेहाशीष की आकांक्षा में श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’ajit gupta ने कहा…पलाश जब खिलता है तब लगता है कि जंगल में दावानल आ गया हो, तो पलाश और उसकी छांव की तो कल्‍पना ही नहीं है। क्‍योंकि जब पलाश खिलता है तब वह पत्रविहीन हो जाता है और जब पत्ते ही नहीं तो फिर छांव कैसी?१० अप्रैल २०१० १२:१४ PM

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  15. Anonymous
    अप्रैल 25, 2010 @ 14:31:58

    श्रीकान्‍त जीकविता का यही तो मर्म है कि उसकी अभिव्‍यक्ति की असीम सम्‍भावनाएं हैं। मैंने एक प्रश्‍न उछाला था, आपने उसका सटीक उत्तर दिया और कविता का कार्य पूरा हुआ। जब हम लिखते हैं तो हमारे मन में विचारों और बिम्‍बों का एक मिश्रण होता है लेकिन पाठक के मन में उसके अपने बिम्‍ब होते हैं इसलिए कविता हमेशा कई अर्थ देती है। ……..अजित गुप्‍ता

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